कृषि सुधार के दावों के साथ केंद्र सरकार ने जो तीन नए विधेयक पेश किए हैं, उनका देश भर के किसान विरोध कर रहे हैं क्योंकि नए क़ानून के लागू होते ही कृषि क्षेत्र भी पूँजीपतियों या कॉरपोरेट घरानों के हाथों में चला जाएगा और इसका नुक़सान किसानों को होगा।
इन तीन नए विधेयकों में ‘आवश्यक वस्तु अधिनियम’ में संशोधन के प्रस्ताव के साथ-साथ ठेके पर खेती को बढ़ावा दिए जाने की बात कही गई है। और प्रस्ताव है कि राज्यों की कृषि उपज और पशुधन बाज़ार समितियों में जो कानून चल रहे, उनमें भी संशोधन किया जाएगा। इससे किसान को न ही फसल का उचित भाव(मूल्य) मिलेगा और न ही किसानों के प्रति सरकारों का दायित्व रहेगा जिससे किसान असंगठित होकर अपनी जमीनें पूंजीपतियों को देने के लिए मजबूर हो जाएगे इसलिए पंजाब, हरियाणा उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश समेत देश भर में कृषि से जुड़े विधेयकों को लेकर विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं।
ये बिल कृषि उत्पादों की बिक्री, फ़ार्म सेवाओं,कृषि बिज़नेस फ़र्मों, प्रोसेसर्स, थोक विक्रेताओं, बड़े खुदरा विक्रेताओं और निर्यातकों को जुड़ने के लिए सशक्त करता है लेकिन इस पूरे सिस्टम में किसान कहीं नहीं है। जब इन कानूनों के मूल में ही किसान नहीं है, तो उसे फायदा कैसे होगा। इस सवालों को लेकर देशभर में किसानों ने आन्दोलन किया लेकिन मोदी की तानाशाही ने किसानों के आन्दोलन को कुचलने के लिए किसानों पर पुलिस के माध्यम से अत्याचार करके आन्दोलन का दमन किया।
कृषि मामलों के जानकार देवेंद्र शर्मा के मुताबिक़ किसानों की चिंता जायज़ है। पत्रकारों से बात करते हुए उन्होंने कहा, “किसानों को अगर बाज़ार में अच्छा दाम मिल ही रहा होता, तो वो बाहर क्यों जाते।” उनका कहना है कि जिन उत्पादों पर किसानों को एमएसपी नही मिलती, उन्हें वो कम दाम पर बेचने को मजबूर हो जाते हैं। इसका सबसे बड़ा नुक़सान आने वाले समय में ये होगा कि धीरे-धीरे मंडियां ख़त्म होने लगेंगी।
प्रदर्शनकारियों को यह डर है कि एफ़सीआई अब राज्य की मंडियों से ख़रीद नहीं कर पाएगा, जिससे एजेंटों और आढ़तियों को क़रीब 2.5% के कमीशन का घाटा होगा। साथ ही राज्य भी अपना छह प्रतिशत कमीशन खो देगा, जो वो एजेंसी की ख़रीद पर लगाता आया है।
कमलनाथ ने अपने वचन पत्र में कहा है कि यदि उनकी सरकार बन जाती है, तो वो इन तीनों किसान विरोधी कानूनों को मध्यप्रदेश में लागू नहीं होने देगे।
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